भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना' (Preamble) में "प्रभुतासंपन्न, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में भारत की अवधारणा की गई थी परंतु श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ४२वें संविधान संशोधन अधिनियम १९७६ के द्वारा "प्रभुतासंपन्न" शब्द को बदल कर "समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य" प्रतिस्थापित किया गया | इस प्रकार ४२वें संशोधन अधिनियम के बाद ही हमारा राष्ट्र 'धर्मनिरपेक्ष' बना | इसका अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं है कि संशोधन से पूर्व हमारा देश किसी धर्म विशेष का समर्थक था | सर्वधर्म समभाव की अवधारणा संशोधन से पहले भी थी और आज भी है | इस शब्द को जोड़ने के पीछे श्रीमती गाँधी का मूल उद्देश्य किसी धर्म विशेष की विचारधारा या सिद्धांत को संविधान की मूल आत्मा पर हावी होने से रोकने का था | 'सर्वधर्म समभाव की' संविधान की मूल भावना जो भारतीय संस्कृति की भी मूल भावना है, को 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द के द्वारा सुरक्षित की गई है |
धर्मनिरपेक्ष शब्द नकारात्मक है अर्थात् संविधान के अंतर्गत सभी धर्मों के प्रति समभाव तो रखा जाएगा परंतु कार्यपालिका, विधायिका एवम् न्यायपालिका अपने कर्तव्यों के पालन में किसी भी धर्म की आइडियोलॉजी को आधार नहीं बनाएँगी | इस सम्बन्ध में भारतीय संविधान में बड़ी ही सुंदर व्यवस्था दी गई है एक तरफ मूल अधिकार के तहत नागरिकों को धर्म एवम् पूजा का अधिकार दिया गया है वहीं अनुच्छेद १५ में राज्य को धर्म, जाती, मूलवंश, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर नागरिकों में विभेद करने से रोका है | कहने का तात्पर्य यह है कि संविधान अपने स्तर पर या अपनी निगाह में सभी धर्मावलंबियों पर समान दृष्टि रखेगा परंतु राज चलाने वालों को धर्म जाती वंश आदि के आधार पर विभेद करने से मना किया है | अब सवाल ये है कि आज की परिस्थितियों में जातिगत आरक्षण को लेकर जो घमासान मचा है या राजनैतिक दलों में जो होड़ लगी है वो संविधान के अंतर्गत समाज के पिछड़ों को आगे लाने की मुहिम है या वोट बैंक की राजनीति है ? -Priyadarshan Shastri